Mandukya Upanishad Hindi - Summary
माण्डूक्योपनिषद (Mandukya Upanishad) अथर्ववेदीय शाखा का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखा गया है और इसके रचयिता वैदिक काल के ऋषि माने जाते हैं। इस उपनिषद में आत्मा या चेतना के चार अवस्थाओं का वर्णन किया गया है – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
माण्डूक्योपनिषद: एक संक्षिप्त परिचय
माण्डूक्योपनिषद भारत में विद्यमान पहले दस उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं। आकार के दृष्टिकोण से, यह उपनिषद सबसे छोटी है, लेकिन इसके महत्त्व के कारण इसे ऊँचा स्थान प्राप्त है। इसकी आध्यात्मिक विद्या को इन मंत्रों में बहुत ही संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।
माण्डूक्योपनिषद – Mandukya Upanishad
इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व, भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में और यहां तक कि इनसे परे, जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है, वह ॐ है। यही ब्रह्म है, और यही आत्मा भी ब्रह्म है।
आत्मा चतुष्पाद है, अर्थात् उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
- जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहा जाता है, क्योंकि इस अवस्था में सभी जीव एक योनि से दूसरी में जाते हैं। इस स्थिति में जीवात्मा बाह्य वस्तुओं से इंद्रिय आदि 19 मुखों के माध्यम से स्थूल विषयों का अनुभव करता है। यह अवस्था बहिष्प्रज्ञ है।
- दूसरी अवस्था, तेजस नामक स्वप्न अवस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर स्वतंत्रता से अनुभव करता है और मन के स्फुरण द्वारा विभिन्न संस्कारों का अनुभव करता है।
- तीसरी अवस्था सुषुप्ति है, जहाँ जीवात्मा आनंदमय ज्ञान स्वरूप में स्थित होता है। यहां वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का कारण होता है।
- हालांकि इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद, अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसका असली स्वरूप है। इस अवस्था में आत्मा न अंतःप्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ, बल्कि यह अदृष्ट, अव्यवहार्य और अत्यधिक शांत है। यहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है। (मंत्र 7)
ओंकार रूपी आत्मा का स्वरूप चार अवस्थाओं के दृष्टिकोण से प्रकट होता है, जिसे ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी की शुरूआत होती है। सुषुप्ति, जो स्थानीय प्राज्ञ का ऊँकार की मकार मात्रा है, उसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय का अनुभव होता है। यह प्रदर्शित करता है कि ऊँकार ही जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।
वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाएँ त्रैमात्रिक ओंकार से संबंधित हैं, जबकि तुरीय अवस्था में केवल अद्वितीय आत्मा होती है।
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