Shri Ram Stuti (श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन) - Summary
श्री राम स्तुति (श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन)
श्री राम स्तुति भगवान श्री राम की महिमा और गुणों का वर्णन करने वाली एक लोकप्रिय स्तुति है। यह भक्तों को रामायण के प्रमुख पात्र, सीता और राम के प्रति श्रद्धा का अनुभव कराती है। श्री राम स्तुति को पढ़ने और सुनने से श्रद्धालु श्री राम के आगमन से अभिभूत होते हैं और सुख, शांति तथा कल्याण की प्राप्ति करते हैं। यह स्तुति भगवान राम के भक्तों के बीच बेहद प्रिय है और उनके जीवन में धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता की स्थायी नींव रखती है।
श्री राम स्तुति की विशेषताएँ
श्री राम स्तुति न केवल भक्ति प्रकट करती है, बल्कि भक्तों को एक नई चेतना और ऊर्जा भी प्रदान करती है। इस स्तुति के माध्यम से श्रद्धालु अपनी भावनाओं को अपने इष्ट, श्री राम के प्रति व्यक्त करते हैं। इस स्तुति का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह भक्ति और त्याग का एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत करती है।
Shree Ram Stuti Lyrics in Hindi
श्री राम चंद्र कृपालु भजमन, हरण भाव भय दारुणम्।
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम्।।
कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम्।
पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम्।।
भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम्।
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम्।।
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-धूषणं।।
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम्।।
छंद
मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरों।
करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो।।
एही भांती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानी पूजि पूनी पूनी मुदित मन मंदिर चली।
।।सोरठा।।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे।।
श्री रामचंद्र कृपालु भजमन अर्थ सहित
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ।।१।।
अर्थ:- हे मन! कृपालु (कृपा करनेवाले, दया करनेवाले) श्रीरामचंद्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण (कठोर, भीषण) भय को दूर करने वाले हैं। उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं। मुख, हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं। १
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि-शुचि, नौमी जनक सुतावरं ॥२॥
अर्थ:- उनके सौंदर्य की छटा अगणित (असंख्य, अनगिनत) कामदेव से बढ़कर है। उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है। पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है। ऐसे पावन रूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ। २
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥
अर्थ:- हे मन! दीनों के बंधू, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्य के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कोशल-देश रूपी आकाश में निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर। ३
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारू अंग विभूषणं ।
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित खरदूषणं ॥४॥
अर्थ:- जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लंबी हैं। जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है। ४
इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल गंजनं ॥५॥
अर्थ:- तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि जो शिव, शेषजी और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करें। ५
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
अर्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेंगे। वह करुणा निधान (दया का खजाना) और सुजान (सर्वज्ञ, सब जाननेवाला) है, शीलवान है। तुम्हारे स्नेह को जानता है। ६
एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली ।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥
अर्थ:- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं। ७
जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥
अर्थ:- गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगल के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे। ८
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