वैभव लक्ष्मी व्रत कथा – Vaibhav Laxmi Vrat Katha Hindi

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वैभव लक्ष्मी व्रत कथा – Vaibhav Laxmi Vrat Katha in Hindi

हिंदू धर्म में माता लक्ष्मी के अनेक रूपों की पूजा की जाती है। कोई इन्हें धनलक्ष्मी तो कोई इन्हें वैभव लक्ष्मी के रूप में पूजता है। कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति वैभव लक्ष्मी का व्रत पूजन हर शुक्रवार को कता है तो उसकी हर मनोकामना माता शीघ्र पूरी करती हैं। इस व्रत को घर का कोई भी सदस्य कर सकता है। यहां तक की कोई भी पुरुष इस व्रत का पालन कर सकता है। इस व्रत को उत्तम फल देने वाला भी कहा जाता है। इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति की सभी मनोकामना पूर्ण होती है और माता लक्ष्मी सदैव उनकी रक्षा करती हैं।

वैभव लक्ष्‍मी व्रत सात, ग्यारह या इक्कीस, जितने भी शुक्रवारों की मन्नत मांगी हो, उतने शुक्रवार तक यह व्रत पूरी श्रद्धा तथा भावना के साथ करना चाहिए। आखिरी शुक्रवार को इसका शास्त्रीय विधि के अनुसार उद्यापन करना चाहिए। आखिरी शुक्रवार को प्रसाद के लिए खी‍र बनानी चाहिए। जिस प्रकार हर शुक्रवार को हम पूजन करते हैं, वैसे ही करना चाहिए। पूजन के बाद मां के सामने एक श्रीफल फोड़ें फिर कम से कम सात‍ कुंआरी कन्याओं या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर मां वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक की एक-एक प्रति उपहार में देनी चाहिए और सबको खीर का प्रसाद देना चाहिए।

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा | Vaibhav Laxmi Vrat Katha

लाखों की जनसंख्या को अपने में समेटे कुशीनगर एक महानगर था। जैसी कि अन्य महानगरों की जीवनचर्या होती है, वैसा ही कुछ यहां भी था। यानी बुराई अधिक अच्छाई कम… पाप अधिक पुण्य कम। इसी कुशीनगर में हरिवंश नामक एक सद्गृहस्थ अपनी पत्नी दामिनी के साथ सुखी-सम्पन्न जीवन गुजार रहा था। दोनों ही बड़े नेक और संतोषी स्वभाव के थे। धार्मिक कार्यों अनुष्ठानों में उनकी अपार श्रद्धा थी।

दुनियादारी से उनका कोई विशेष लेना-देना नहीं था। अपने में ही मगन गृहस्थी की गाड़ी खींचे चले जा रहे थे दोनों। किसी ने ठीक ही कहा है-‘संकट और अतिथि के आने के लिए कोई समय निर्धारित नहीं होता।’ कुछ ऐसा ही हुआ दामिनी के साथ-जब उसका पति हरिवंश न जाने कैसे बुरे लोगों की संगत में फंस गया और घर-गृहस्थी से उसका मन उचट गया।

देर रात शराब पीकर घर आना और गाली-गलौज तथा मारपीट करना उसका नित्य का नियम सा बन गया था। जुए, सट्टे, रेस तथा वेश्यागमन जैसे बुरे कर्म भी कुसंगति की बदौलत उसके पल्ले पड़ गए। धन कमाने की तीव्र लालसा ने हरिवंश की बुद्धि हर ली और उसको अच्छे-बुरे का भी ज्ञान न रहा। घर में जो भी था, सब उसके दुर्व्यसनों की भेंट चढ़ गया। जो लोग पहलें उसका सम्मान करते थे, अब उसे देखते ही रास्ता बदलने लगे। भुखमरी की हालत में भिखमंगों के समान उनकी स्थिति हो गई।

लेकिन दामिनी बेहद संयमी और आस्थावान तथा संस्कारी स्त्री थी। ईश्वर पर उसे अटल विश्वास था। वह जानती थी कि यह सब कर्मों का फल है। दुख के बाद सुख तो एक दिन आना ही है…इस आस्था को मन में लिए वह ईशभक्ति में लीन रहती और प्रार्थना करती कि उसके दुख शीघ्र दूर हो जाएं। समय का चक्र अपनी रफ्तार से चलता रहा।

अचानक एक दिन दोपहर के समय द्वार पर हुई दस्तक की आवाज सुनकर दामिनी की तंद्रा भंग हुई। अतिथि सत्कार के भयमात्र से उसकी अंतरात्मा कांप उठी क्योंकि घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, जो अतिथि की सेवा में अर्पित किया जा सकता। फिर भी संस्कारों की ऐसी प्रबलता थी कि उसका मन अतिथि सत्कार को उद्धत हो उठा। उसने उठकर द्वार खोला। देखा, सामने एक दिव्य -पुरुष खड़ा था। बड़े-बड़े घुंघराले श्वेत केश… चेहरे को ढंके हुए लहराती दाढ़ी…गैरुए वस्त्रों का आवरण पहने…उसके चेहरे से तेज टपका पड़ रहा था… आंखें मानो अमृत-वर्षा सी कर रही थीं। उस दिव्य-पुरुष को देखकर दामिनी को अपार शांति का अनुभव हुआ और वह उसे देखते ही समझ गई कि आगत वास्तव में कोई पहुंचा हुआ सिद्ध महात्मा है।

उसके मन में अतिथि के प्रति गहन श्रद्धा के भाव उमड़ पड़े और वह उसे सम्मान सहित घर के भीतर ले गई। दामिनी ने जब उसे फटे हुए आसन पर बैठाया तो वह ‘मारे लज्जा के जमीन में गड़-सी गई। उधर वह संत पुरुष दामिनी की ओर एकटक निहारे जा रहा था। घर में जो कुछ भी बचा-खुचा था दामिनी ने अतिथि की सेवा में अर्पित कर दिया, पर उसने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह तो बस दामिनी को यूं निहारे जा रहा था, मानो उसे कुछ याद दिलाने की चेष्टा कर रहा हो। जब काफी देर तक दामिनी कुछ न बोली तो उसने कहा- ‘बेटी, मुझे पहचाना नहीं क्या?”

उसका यह प्रश्न सुनकर दामिनी जैसे सोते से जागी और अत्यंत सकुचाते हुए मृदुल स्वर में बोली-‘महाराज, मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जो आप जैसे दिव्य पुरुष को मैं पहचानकर भी नहीं पहचान पा रही हूं, पारिवारिक कष्टों ने तो जैसे मेरी सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली है। लेकिन यह निश्चित है कि संकट की इस घड़ी में मुझे आप जैसे साधु पुरुष का ही सहारा है…तभी जैसे दामिनी को कुछ याद हो आया…

वह उस साधु के चरणों में गिरकर बोल उठी-‘अब मैं आपको पहचान गई हूं महाराज! स्नेहरूपी अमृत की वर्षा करने वाले अपने शुभचिंतक को कोई कैसे भूल सकता है भला!’ वास्तव में वह साधु मंदिर की राह के मध्य में बनी अपनी कुटिया के बाहर वटवृक्ष के नीचे बैठ साधना किया करता था और मंदिर आने-जाने वाले सभी श्रद्धालु उसे प्रणाम करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते थे। दामिनी भी उन्हीं में से एक थी। जब पिछले काफी दिनों से उसने उसे मंदिर की ओर आते-जाते नहीं देखा तो उसकी कुशलक्षेम जानने के लिए पूछताछ करते हुए उसके घर की ओर आ निकला था।

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा पूजा विधि

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