विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra) - Summary
विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra) एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो देवी के प्रश्नों से शुरू होता है। देवी ऐसे सवाल पूछती हैं, जो गहरा अर्थ रखते हैं। लेकिन शिव इन प्रश्नों का उत्तर सीधे नहीं देते। देवी पूछती हैं- प्रभो आपका सत्य क्या है? शिव इसे सीधे बताने के बजाय एक ‘विधि’ का सुझाव देते हैं। देवी अगर इस विधि का पालन करें तो उन्हें उत्तर मिल जाएगा। इसलिए, इन सवालों का उत्तर प्रत्यक्ष नहीं है; बल्कि, यह परोक्ष है। शिव नहीं बताते कि मैं कौन हूँ, वे केवल एक विधि बताते हैं। वे कहते हैं: यह करो और तुम जान जाओगे। तंत्र के लिए करना ही जानना होता है।
विज्ञान भैरव तंत्र का संसार बौद्धिक नहीं, बल्कि एक अनुभवात्मक है। तंत्र शब्द का अर्थ है विधि, उपाय, और मार्ग। इसलिए, यह एक वैज्ञानिक ग्रंथ है। विज्ञान “क्यों” की बजाय “कैसे” पर ध्यान केंद्रित करता है। दर्शन और विज्ञान में यही मुख्य भेद है। दर्शन यह पूछता है कि यह अस्तित्व क्यों है? लेकिन विज्ञान पूछता है, यह अस्तित्व कैसे है? जब हम “कैसे” का प्रश्न करते हैं, तब उपाय और विधि महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इसका अर्थ है अनुभव। विज्ञान का मतलब है चेतना, और भैरव एक विशेष तांत्रिक शब्द है, जिसका प्रयोग उच्चतर ज्ञान के लिए किया जाता है। इसीलिए शिव को भैरव और देवी को भैरवी कहा जाता है, क्योंकि वे द्वैत के पार जाते हैं।
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अनुक्रमणिका – Index
- भैरवके स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न
- परमतत्त्व विषयक आठ प्रश्न
- परादि शक्तित्रय विषयक प्रश्न
- सकल स्वरूप को असारता
- निष्कल स्वरूप की परमार्थता
- शिव-शक्ति के स्वरूप का निर्णय
- परावस्था की प्राप्ति का उपाय क्या है
- क्रमशः ११२ धारणाओं का उपदेश
- प्राणापान विषयक धारणा के पविध अर्थ
- अष्टविध प्राणायाम
- भैरव मुद्रा का विवेचन
- शान्ता नामा शक्ति से शान्त स्वरूप की प्रामि
- प्राणापान वायु की सूक्ष्मता से भैरव स्वरूप की अभिव्यक्ति
- प्रतिचक्र में दौड़ती प्राणवायु का चिन्तन
- अकारादि द्वादश स्वरों द्वारा द्वादश चक्रों का भेदन
- खेचरी मुद्रा का साधन
- इन्द्रिय-पंचक की शून्यता द्वारा अनुत्तरशून्य में प्रवेश
- शून्यता में लीन प्राणशक्ति
- कपालछिद्र में मन की एकाग्रता
- चिदाकाशात्मिका देवी का सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ध्यान
- सूचक्र के भेदन द्वारा विन्दु में लीन होना
- विकल्पों के विनाश हेतु विन्दु का द्वादशान्त में ध्यान
- नाद (शब्दब्रह्म) भावना
- प्रणवपिण्डमन्त्र भावना
- प्रणव व प्लुतोच्चारण द्वारा शून्यभाव की धारणा
- वर्ण के आदि-अन्त के भनन द्वारा शून्य का साक्षात्कार
- नाम द्वारा परमाता की प्रति
- अर्जेन्दु, बिन्दु, नाद व नादान्त के अनन्तर
शून्य भावना
- परममून्य की धारणा द्वारा समग्र आकाश का प्रकाशन
- शून्य के चिन्तन से मन की शून्यता
- ऊर्ध्वं मूल और मध्य शून्य के चिन्तन द्वारा
- निर्विकल्पता का उदय
- शरीर में क्षणिक शून्यता के चिन्तन द्वारा भी तत्वों की निर्विकल्पता
- देह के समस्त द्रव्यों की आकाश से व्याप्ति शरीर की त्वचा की व्यर्थता
- चित्त की एकाग्रता द्वारा मात्र चैतन्य की अनुभूति
- द्वादशान्त में मन की लीनता तथा बुद्धि की स्थिरता
- वृत्तियों की क्षीणता द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति
- कालाग्नि के मध्य स्वारी को जलता हुआ मानना
- सारे संसार को विकल्पों से जला हुआ मानना
- संपूर्ण जगत् के तत्वों को स्व-स्व कारणों में लय हो जाने का ध्यान करना
- हृदय-चक्र में प्राणशक्ति का ध्यान करना
षडव भावना
- भुवनाध्या के रूप में चिन्तन से मन का रूप हो जाना
- अध्य प्रक्रिया से शिवतत्व का ध्यान करना
- संसार को शून्यता में लीन करना
- अंतःकरण में दृष्टि का स्थापन
मध्य भावना
- दृष्टि-बन्धन भावना का निरूपण
- निरालम्ब भाव का वर्णन
- ध्येयाकार भावना
- शाक्ती भूमिका समग्र शरीर व जगत् को चिन्मय विचारना
- अन्तर व बाह्य वायुओं का संघट्टन
- सम्पूर्ण जगत् को आत्मानन्द से परिपूर्ण मानना
- मायीक प्रयोग (कुन प्रयोग) महानन्द की प्राप्ति
प्राणायाम- विवेचन
- इन्द्रिय-छिद्रों के निरोध तथा प्राण-शक्ति के उत्थान से ‘परमसुख’
- विषस्थान तथा वह्निस्थान के मध्य में मन को स्थित करने से परम शिव की प्राप्ति
सुख भावना
- स्त्री-संसर्ग के आनन्द से ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति
- स्त्री जन्य पूर्वानुभूत सुखों के स्मरण द्वारा परमानन्द की अनुभूति
- धन एवं बन्धुबान्धव के मिलने से उत्पन्न आनन्द का ध्यान
- भोजन और पान के आनन्द का ध्यान
- संगीतादि विषयों के आस्वादन में तन्मयता
- मनोवांछित संतोष की प्राप्ति के साधनों में मन की स्थिरता
- मनोगोचर अवस्था द्वारा परादेवी का प्रकाशन
- (शांभवी भूमिका) सूर्य-दीपक आदि तेज से चित्रित आकाश में दृष्टि को स्थित करना
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