पशुपति व्रत कथा (Pashupati Vrat Katha) - Summary
पशुपति व्रत भगवान शिव के पशुपतिनाथ स्वरूप की आराधना का एक पवित्र व्रत है। यह व्रत विशेष रूप से उन भक्तों द्वारा किया जाता है जो भगवान शिव से मनोकामनाओं की पूर्ति, पापों से मुक्ति और जीवन में शांति की कामना करते हैं। इस व्रत में भक्त उपवास रखते हैं, भगवान पशुपति की पूजा करते हैं और दिनभर भक्ति भाव से शिव नाम का जप करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को करने से मनुष्य सभी बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है।
पशुपति व्रत का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहरा है। यह व्रत श्रद्धा और भक्ति से किया जाए तो भगवान शिव अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं और उन्हें जीवन की सभी कठिनाइयों से मुक्ति देते हैं। कथा सुनने और व्रत करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और व्यक्ति के भीतर शांति एवं आत्मबल का विकास होता है।
पशुपतिनाथ व्रत कथा
एक बार की बात है भगवान शिव नेपाल की सुन्दर तपोभूमि से आकर्षित होकर एक बार कैलाश छोड़कर यहाँ आये और यहीं ठहरे। इस क्षेत्र में वह तीन सींग वाले हिरण (चिंकारा) के रूप में विचरण करने लगा। इसलिए इस क्षेत्र को पशुपति क्षेत्र या मृगस्थली भी कहा जाता है। शिव को इस तरह अनुपस्थित देखकर ब्रह्मा और विष्णु चिंतित हो गए और दोनों देवता भगवान शिव की खोज में निकल पड़े।
इस रमणीय क्षेत्र में उसने एक देदीप्यमान, मोहक तीन सींग वाला मृग विचरण करते देखा। उन्हें मृग रूपी शिव पर शक होने लगा। योग विद्या से ब्रह्मा जी ने तुरंत पहचान लिया कि यह मृग नहीं, बल्कि भगवान आशुतोष हैं। तुरंत ही ब्रह्मा जी उछल पड़े और मृग के सींग को पकड़ने की कोशिश करने लगे। इससे मृग के सींग के 3 टुकड़े हो गए।
उसी सिंह का एक पवित्र टुकड़ा टूटकर यहां पर भी गिर गया जिसकी वजह से यहां महारुद्र जी का जन्म हुआ जो आगे चलकर पशुपतिनाथ जी के नाम से प्रसिद्ध हुए भगवान शिव जी की इच्छा के अनुसार, भगवान विष्णु ने भगवान शिव को मोक्ष देने के बाद, नागमती के ऊंचे टीले पर एक लिंग स्थापित किया, जो पशुपति के रूप में प्रसिद्ध हुआ।