सत्यनारायण कथा किताब और पूजा विधि सहित - Summary
श्रीसत्यनारायण व्रत कथा वास्तव में सत्य का क्या स्वरूप है, वही इस कथा के माध्यम से भगवान् श्रीहरि ने अपने भक्तों को समझाया है। संकल्प-पूर्वक दृढ़ निश्चय के साथ क्रिया विशेष द्वारा जो अनुष्ठान किया जाये, उसे व्रत कहा जाता है, हमारे शास्त्रों में जिन-जिन व्रतों का वर्णन किया गया है वे कभी न कभी किसी ऋषि-महर्षि, अथवा महापुरुष साधक के द्वारा किये गये अनुष्ठान ही हैं। उनसे सम्बन्धित कथाओं में बताया गया है कि सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया तथा उसे किस ॐ अभीष्ट फल की प्राप्ति हुई। इसलिये वर्तमान समय में भी वह व्रत करणीय है।
व्रतोपवास का न केवल दृष्ट फल ही है। अपितु इससे कर्ता का शुभ अदृष्ट फल भी बनता है, दृढ़ निश्चय का संस्कृत में संकल्प नाम दिया गया है। किसी भी व्रत का अनुष्ठान करने अथवा नियम लेने के लिये दृढ़ इच्छा-शक्ति की आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ इसीलिये ॐ किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करते समय संकल्प का विधान बनाया गया है। मनु महाराज का कथन है- संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः । व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः ॥ जो भी कामना की जाती है, उसके मूल में एक संकल्प रहता है यज्ञ भी संकल्प से संभव होते हैं, व्रत नियम और धर्म सभी संकल्प जनित होते हैं। संकल्प ही कार्य में प्रधान होता है। इसलिये दीर्घकाल तक उपासना करने योग्य कार्यकलाप को जो एक निश्चित संकल्प के साथ किया जाये उसे व्रत कहा गया है।
सत्यनारायण पूजा विधि मंत्र सहित
- सर्वप्रथम कलश में रोली से स्वस्तिक बनाकर व कलश के गले में तीन धागे वाली मौली (कच्चा सूत्र) लपेटकर पूजन कर्ता को अपनी बायीं ओर अबीर आदि से अष्टदल कमल बनाकर उसपर सप्तधान्य (जौ, धान, तिल, कँगनी, मूँग, चना तथा साँवा) या चावल अथवा गेहूँ या जौ रखकर उसके ऊपर कलश को स्थापित करें।
- उस स्थापित कलश में जल डाल दें। तदनन्तर कलश में यथोपलब्ध सामग्री- चन्दन, सर्वौषधी, हल्दी, दूर्वा, कुश, सप्तमृत्तिका, (घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों के संगम, तालाब, राजा के द्वार और गोशाला-इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृत्तिका कहते हैं) सुपारी, पञ्चरत्न, (सोना, हीरा, मोती, पद्मराग और नीलम) तथा दक्षिणा भी छोड़ें। तदुपरान्त पञ्चपल्लव (बरगद, गूलर, पीपल, आम तथा पाकड़ के नये और कोमल पत्ते) छोड़ें।
- तत्पश्चात्-कलश को वस्त्र से अलंकृत करें तथा कलश के ऊपर चावल से भरे पूर्णपात्र को रखें और उस पर लाल कपड़े से वेष्टित नारियल को भी रखें। नारियल के अभाव में सुपारी अथवा फल रखें। वरुणम् आवाहयेत्
- कलश में सर्वप्रथम जल के अधिपति वरुणदेव का अक्षत पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र के द्वारा आवाहन करें।
- ॐ तत्त्वायामिब्ब्रह्मणावन्दमानस्तदा शास्तेयजमानोहविर्भिः। अहेडमानो वरुणेहबोध्युरुशः समानऽआयुः प्रमोषीः ॥ अस्मिन् कलशे वरुणं साङ्गं सपरिवारं सायुधं स शक्तिकं आवाहयामि स्थापयामि। ॐ अपांपतये वरुणाय नमः । इति |पचोपचारैर्वरुणं सम्पूज्य । (चावल फूल छोड़कर, वरुणदेव की पञ्चोपचार से पूजा करें)
सत्यनारायण भगवान की कथा लिखित में ( सत्यनारायण भगवान की कथा)
अथ प्रथमोऽध्यायः– श्रीसत्यनारायणव्रत की महिमा तथा व्रत की विधि
श्रीव्यास उवाच एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः । पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ॥१॥
श्रीव्यासजी ने कहा-एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि अठ्ठासी हजार सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराण एवं शास्त्र के ज्ञाता श्रीसूतजी महाराज से पूछा- ॥१॥
ऋषय ऊचुः
व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वाञ्छितं फलम् । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व महामुने ॥२॥
ऋषियों ने कहा-हे महामुने! आप तो इतिहास एवं पुराणों के ज्ञाता है। अतः आपसे एक निवेदन है, कि इस कलियुग में वेद विद्या से रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार से प्राप्त हो, तथा उनका उद्धार कैसे होगा? इसलिये हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा तप कहें, कोई ऐसा व्रत कहें, कोई ऐसा अनुष्ठान कहें, जिससे थोड़े ही समय में पुण्य मिल सके और मनोवाञ्छित फल की भी प्राप्ति हो सके। हमारी सुनने की प्रबल इच्छा है ॥२॥
सूत उवाच
नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापतिः । सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिताः ॥३॥ एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया ।
पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागतः॥४॥ ततोदृष्ट्वा जनान्सर्वान् नानाक्लेशसमन्वितान्। नानायोनिसमुत्पन्नान् क्लिश्यमानान् स्वकर्मभिः
॥५॥ केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद् ध्रुवम् । इति संचिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ॥६॥
सर्वशास्त्र ज्ञाता श्रीसूतजी ने कहा- हे ऋषियो! आप सबने सभी प्राणियों के हित के लिये यह बात पूछी है, क्योंकि परोपकार ही तो संतों का लक्षण है। इसलिये उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा जिस व्रत को नारद जी ने भगवान कमलापति से पूछा था। एक समय योगिराज नारद जी (परानुग्रह कांक्षया) दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्यु लोक में आ पहुँचे। वहाँ अनेक योनियों में जन्में प्राणी अपने कर्मों के द्वारा अनेकों दुःखों से पीड़ित हैं, ऐसा देखकर नारद जी ने मन में ॐ विचार किया कि किस यत्न से इन प्राणियों के दुःख का नाश हो। ऐसा मन में विचार कर विष्णु लोक को गये – ॥३-६ ॥
तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शंख-चक्र-गदा-पद्म-वनमाला – विभूषितम् ॥७॥ दृष्ट्वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ।
वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले सबके आधार भगवान् नारायण को देखा। जिनके हाथों में शंख, चक्र, ॐ गदा और पद्म तथा गले में वनमाला सुशोभित है। नारदजी ने श्रीविग्रह के दर्शन कर सुन्दर स्तुति करने लगे। ।७१/२
नारद उवाच
नमो वाङ्गमनसातीतरूपायानन्तशक्तये॥८॥
आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने। सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥ ९ ॥
श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ।
नारदजी बोले -हे भगवन्! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती. आपका आदि, मध्य, अन्त भी नहीं है। निर्गुण स्वरूप सृष्टि के आदिभूत एवं भक्तों के दुःखों को नष्ट करने वाले आप हैं, भगवन् मेरा नमन् स्वीकार करें। नारदजी की स्तुति सुनकर भगवान् नारायण ने नारद जी से पूछा ।।८- ९१ / २ ॥
श्रीभगवानुवाच
किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते । कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥१०॥
श्रीभगवान् ने कहा- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है। आपका यहाँ किस काम के लिये आगमन हुआ है। निःसंकोच कहो, मैं सब कुछ बताऊँगा ।।१०।।
नारद उवाच
मर्त्यलोके जनाः सर्वे नानाक्लेशसमन्विताः । नानायोनिसमुत्पन्नाः पच्यन्ते पापकर्मभिः॥११॥
तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद । श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि ॥ १२ ॥
नारदजी ने कहा- हे प्रभु! मृत्युलोक में प्राय: अपने-अपने पाप कर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों मे उत्पन्न सभी लोग अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी हो रहे हैं। हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बतलायें कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े ही प्रयत्न से कैसे दूर हों । । ११-१२ ।।
श्रीभगवानुवाच
साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकांक्षया । यत्कृत्वा मुच्यते मोहात् तच्छृणुष्व वदामि ते ॥१३॥ व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् । तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाशः क्रियतेऽधुना ।।१४।। सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानतः । कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्॥१५॥ तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत् ॥
भगवान् श्रीहरि ने कहा-हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिये आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणि मोह से मुक्त हो जाता है, सो मैं उस महान् शक्तिशाली व्रत को कहता हूँ. ॐ श्रीसत्यनारायण भगवान् का व्रत महान् पुण्य देने वाला तथा स्वर्ग एवं मृत्युलोक में अत्यन्त दुर्लभ है। ॐ श्रीसत्यनारायणजी का व्रत पूर्ण विधि विधान से करने पर मनुष्य मृत्युलोक में सुख भोग कर अन्त में शरीर छोड़कर मोक्ष को प्राप्त होता है। भगवान् के श्रीमुख से वचन सुनकर, नारद जी ने पूछा- ।।१३-१५१/२ ।।
नारद उवाच
किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम् ॥१६॥ तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं व्रतं प्रभो ॥
नारदजी ने कहा- हे प्रभो! सत्यव्रत का फल क्या है? क्या विधान है? किसने सत्यव्रत को किया है? तथा किस दिन सत्यव्रत को करना चाहिये। सब विस्तार से हमारी सुनने की अभिलाषा है ।। १६०३ ।।
श्रीभगवानुवाच
दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥१७॥ सौभाग्यसंततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम् । यस्मिन् कस्मिन् दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥१८॥ सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे । ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्परः ॥ १९ ॥ नैवेद्यं भक्तितो दद्यात् सपादं भक्ष्यमुत्तमम् । रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम्॥२०॥ अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा गुडस्तथा। सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥ २१ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- नारद! दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला धन-धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा सन्तान को देने वाला, सभी स्थानों पर विजयश्री दिलाने वाला-भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्रीसत्यनारायण की कथा शाम के समय ब्राह्मणों एवं बन्धुओं के साथ धर्मपारायण होकर ॐ पूजा करें। भक्ति भाव से सवाया मात्रा में नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध, और गेहूँ का चूर्ण लेवे। गेहूँ ॐ ॐ के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर तथा गुड़ लें और सब भक्षण योग्य पदार्थ एकत्रित करके भगवान् सत्यनारायण को अर्पण करना चाहिये ।।।१७-२१ ।।
विप्राय दक्षिणां दद्यात् कथां श्रुत्वा जनैः सह। ततश्च बन्धुभिः सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत्॥२२॥ प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत्। ततश्च स्वगृहं गच्छेत् सत्यनारायणं स्मरन् ॥२३॥
एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम्। विशेषतः कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥२४॥
बन्धु बान्धवों के साथ श्रीसत्यनारायण कथा सुनकर ब्राह्मणों को भोजन करायें एवं दक्षिणा देकर सन्तुष्ट करें। तदुपरान्त बन्धु-बान्धवों सहित स्वयं भी भोजन करें। नृत्य-गीत आदि का आचरण कर | श्रीसत्यनारायण भगवान् का स्मरण कर रात्रि व्यतीत करें। इस तरह से व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छायें निश्चय ही पूर्ण होती हैं। विशेष कलिकाल में मृत्यु-लोक में यही इच्छा पूर्ति एवं मोक्ष का सरल सा उपाय |है ।। २२-२४ ।।
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां प्रथमोऽध्यायः ॥ 47। इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का यह पहला अध्याय पूरा हुआ || १ ||
सत्यनारायणजी आरती (Satyanarayan Aarti Lyrics)
जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे ।
नारद करत नीराजन, घंटा वन बाजे ॥ जय लक्ष्मी… ॥
प्रकट भए कलि कारण, द्विज को दरस दियो ।
बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ जय लक्ष्मी… ॥
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
चंद्रचूड़ एक राजा, तिनकी बिपति हरी ॥ जय लक्ष्मी… ॥
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं ।
सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति किन्हीं ॥ जय लक्ष्मी… ॥
भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धर्यो ।
श्रद्धा धारण किन्ही, तिनको काज सरो ॥ जय लक्ष्मी… ॥
ग्वाल-बाल संग राजा, बन में भक्ति करी ।
मनवांछित फल दीन्हों, दीन दयालु हरि ॥ जय लक्ष्मी… ॥
चढ़त प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा ।
धूप-दीप-तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे ।
तन-मन-सुख-संपति मनवांछित फल पावै॥ जय लक्ष्मी… ॥
श्री सत्यनारायण पूजा सामग्री
- पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है।
- सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद (पसन्द) है।
- इन्हें प्रसाद के तौर पर फल, मिष्टान्न के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है जिसे सत्तू ( पंजीरी ) कहा जाता है, उसका भी भोग लगता है।
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