निर्मला उपन्यास – Nirmala Novel Premchand Hindi PDF

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निर्मला उपन्यास – Nirmala Novel Premchand - Summary

निर्मला (Nirmala) एक महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसे प्रसिद्ध भारतीय लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है। यह उपन्यास पहली बार 1928 में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास उन सामाजिक मुद्दों का दुखद चित्रण करता है जो बारहवीं और उसके बाद के शताब्दी के भारतीय समाज में थे, विशेष रूप से महिलाओं की स्थिति और दहेज प्रथा के बारे में। प्रेमचंद जी ने इस उपन्यास के माध्यम से बाल विवाह, दहेज और विधवाओं के द्वेषपूर्ण व्यवहार जैसे कई सामाजिक मुद्दों पर विचार किया। उन्होंने उन संस्कृतियों और परंपराओं का आलोचनात्मक विश्लेषण किया जो महिलाओं की पीड़ा को बढ़ाती हैं और उनकी स्थिति को दुर्बल बनाती हैं।

Nirmala Novel: A Reflection on Social Issues

कहानी एक युवा लड़की निर्मला के जीवन के चारों ओर घूमती है, जिन्होंने एक बुढ़े विधवा तोताराम से शादी की है। उपन्यास में निर्मला के नए घर में होने वाले संघर्षों का वर्णन किया गया है, जहाँ उसे भर्त्सना और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। यह कहानी विभिन्न संबंधों के जटिल द्वंद्वों और एक पुराने समाज में महिलाओं की कठिनाइयों को उजागर करती है। 😊

निर्मला उपन्यास – Nirmala by Minshi Premchand

यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजा, लेकिन यहां हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं, वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कत्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो केवल उनकी दोनों कन्याओं से है, जिनमें बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं। निर्मला का पन्द्रहवां साल था, कृष्णा का दसवां, फिर भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अन्तर न था। दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। मां पुकारती रहती थी, पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डांटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं, पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है।

कृष्णा यही है, पर निर्मला बड़ी गम्भीर, एकान्त- प्रिय और लज्जाशील हो गई है। इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी ही दहेज दें, या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं; हां, बारात में जो लोग जायें उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जग-हंसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानों उन्हें आंखें मिल गईं। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था। उनका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये।

इसकी सूचना ने अज्ञान बलिका को मुंह ढांप कर एक कोने में बिठा रखा है। उसके हृदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रो-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नहीं हैं, जो युवतियों की आंखों में तिरछी चितवन बनकर, ओंठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती हैं। नहीं, वहां अभिलाषाएं नहीं हैं, वहां केवल शंकाएं, चिन्ताएं और भीरू कल्पनाएं हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।

कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आएंगे, नाच होगा यह जानकर प्रसन्न है और यह भी जानती है कि बहन सबके गले मिलकर रोयेगी, यहां से रो-धोकर विदा हो जाएगी, मैं अकेली रह जाऊंगी यह जानकर दुःखी है, पर यह नहीं जानती – कि यह इसलिए हो रहा है, माताजी और पिताजी क्यों बहन को इस घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की, क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊंगी और किसी को मुझ पर दया न आयेगी? इसलिए वह भयभीत भी हैं।

संध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था पंख होते, तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करतीं, इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी, जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हंसकर बोली तुम यहां आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूंढती फिरती हूं। चलो बग्घी तैयार करा आयी हूँ।

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