शिव-तन्त्र रहस्य पुस्तक – Shiv Tantra Rahasya Hindi

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शिव-तन्त्र रहस्य पुस्तक – Shiv Tantra Rahasya in Hindi

शिव-तन्त्र रहस्य’ पुस्तक ‘काश्मीर-शैवदर्शन’ के अग्रणी आचार्य उत्पलदेवकी महान् कृति ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका एवं उस पर आचार्य अभिनवगुप्त की व्याख्या ‘विमर्शिनी’ पर आधारित है। काश्मीर-शैवदर्शन अद्वैतवादी दर्शन है तथा अखिल जगत् में केवल शिवकी ही सत्ता स्वीकार करता है, किन्तु काश्मीर शैवदर्शन ही है जो जगत् को मिथ्या नहीं बल्कि मोक्षप्राप्ति का साधन मानता है। नर देह शिवसे साक्षात्कार का साधन है।

शिव-तन्त्र रहस्य’ पुस्तक – Shiv Tantra Rahasya Book in Hindi

शिव-तन्त्र रहस्य’ पुस्तक ‘काश्मीरशैवदर्शन’ के अग्रणी आचार्य उत्पलदेव की महान कृति “ईश्वरप्रत्यभिलाकारिका’ एवं उस पर आचार्य अभिनवगुप्त की व्याख्या ‘विमर्शिनी’ पर आधारित है। काश्मीरशैवदर्शन अद्वैतवादी दर्शन है तथा अखिल जगत् में केवल ‘शिव’ की ही सत्ता स्वीकार करता है, किन्तु काश्मीर शैवदर्शन ही है जो जगत को मिथ्या नहीं बल्कि मोक्ष प्राप्ति का साधन मानता है। नर देश शिव से साक्षात्कार का साधन है। परमशिव स्वयं को ही बंधनग्रस्त करके प्रत्यभिज्ञान द्वारा जानते हैं। यही इस दर्शन की विलक्षणता है जो अन्यत्र कही नहीं मिलती काश्मीरशैवदर्शन केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं देता बल्कि उस ज्ञान को अनुभूति और साधना के मार्ग नका ले जाता है। प्रस्तुत पुस्तक इसी सत्य की “ईश्वरप्रत्यभिज्ञा’ और विमर्शिनी के अनुसार आपके समक्ष प्रस्तुत करती है।

शैवदर्शन में ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका और अभिनवगुप्त

दर्शन

दर्शन का तात्पर्य है सत् असत् का विवेक करके परम तत्व को जानना। प्रत्येक व्यक्ति दर्शन द्वारा जीवन के परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। दर्शन को मूल तत्व को जानने का प्रयास कहा जा सकता है। विकल्प रहित ज्ञान दर्शन कहा गया है। मनुष्य के हृदय में स्वयं के विषय में तथा संसार के कर्ता के विषय में जो जिज्ञासाएँ उठी तथा मृत्यु के बाद क्या आत्मा का अस्तित्व रहेगा? इस प्रकार के प्रश्नों से ही दर्शन का द्वार खुलता है।

मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊँगा? ये प्रश्न मनुष्य को दर्शन के गंभीर चिन्तन की और उन्मुख करते हैं। हमारे ऋषि मुनि बाह्य जगत् से उदासीन होकर जनकल्याण हेतु इन प्रश्नों का उत्तर योग एवम् चिन्तन द्वारा खोजते थे तभी वे साधना द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने वाले मुक्त पुरुष बन सके थे। वेदों में भी इसी जिज्ञासा को इस प्रकार कहा गया है

नासदासीनो सदासीत् तदानींनासीद्रजोनोव्योमा परो यत् ।
किमावरीव कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ।।

ये जिज्ञासाएँ ही आज तक दर्शनशास्त्र की मूल समस्याएँ बनी हुई हैं। कोई दर्शन-सम्प्रदाय ऐसा नहीं है जो इन प्रश्नों का अन्तिम उत्तर देता हो। जो इस सत्य का अनुभव कर लेता है, वह संसार से विरक्त हो जाता है एवं सांसारिक मनुष्य उस परम सत्य को दूसरे साधकों से सुनकर उस सत्य का अनुमान कर सकते हैं किन्तु स्वयं अनुभव तभी कर सकते हैं, जब स्वयं उसी स्थिति को प्राप्त कर लें।

परम तत्त्व अपने अनुभव से पहले ‘नेति नेति’ के रूप में ही जाना जाता है। कोई इसे ब्रह्म कहता है, कोई शिव, तो कोई शब्दब्रह्म एक ही लक्ष्य की ओर उठने वाली ये अलग-अलग मतवादों की दृष्टि है, इनका लक्ष्य एक ही है।भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन अलग नहीं है बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। वहाँ धर्म और दर्शन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। यहाँ दर्शन मोक्ष के प्रश्न से जुड़ा हुआ है तथा मूल्यों को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है।

भारतीय दर्शन जीवन और व्यवहार से कभी अलग नहीं होता। मोक्ष, कर्म, पुनर्जन्म आदि प्रश्नों का नीतिसम्मत हल ढूंढना दर्शन का ही एक अंश रहा है। धर्म | जीवन का ध्येय तो बताता है- मोक्ष, किन्तु उस तक पहुँचने का उपाय दर्शनशास्त्र बताता है।

शैव दर्शन

धर्म दर्शन की अपेक्षा प्राचीन है। विश्वास पर आश्रित धार्मिक नियमों को जब बुद्धि की कसौटी पर परखा जाने लगा, तब दर्शन का उदय हुआ। शैव दर्शन के साथ भी यही हुआ। शैव धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म हैं। शैव धर्म के प्रमाण ताम्रपाषाण युग से पूर्व तक के मिलते हैं। प्रत्येक धर्म की अपनी विशिष्ट बौद्धिक विचारधारा होती है जो उस धर्म की उपासना पद्धति को दिशा देती है। जब ये विचार परिपक्व हो जाते हैं। तब दार्शनिक रूप धारण कर लेते हैं।

शैव दर्शन को भी दार्शनिक रूप में आने तक लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी है। | प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में दो मुख्य विचारधाराएं थी- (1) वैदिक (2) अवैदिक। इसी को आगम-निगम के रूप में कहा जाता है। तन्त्र साहित्य का सम्बन्ध आगम’ से है। यह देवीज्ञान शास्त्र माना जाता है। जो कि गुरु-शिष्य परम्परा में अनवरत चलता रहता है। जैसे वेदों को अनादि माना जाता है, वैसे ही आगम को भी अनादि माना जाता है।

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