Ram Stuti (राम स्तुति अर्थ सहित) - Summary
“श्री रामचन्द्र कृपालु” या “श्री राम स्तुति” गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित उनकी विनय पत्रिका नामक कृति का एक स्तुति (होरेशन ओड) पद्य है। यह सोलहवीं शताब्दी में संस्कृत और अवधी भाषाओं के मिश्रण में लिखा गया था। प्रार्थना/स्तोत्र श्री राम और उनकी विशेषताओं का सर्वोत्तम महिमामंडन करता है।
यह स्तुति रामचरितमानस में तब दी गई है जब भगवान श्री राम का जन्म हुआ था और सभी भक्तों को भगवान राम का आशीर्वाद पाने के लिए राम लला के अभिषेक समारोह के दौरान इस स्तुति का जाप करना चाहिए।
राम स्तुति अर्थ सहित
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ।।१।।
अर्थ:- हे मन ! कृपालु (कृपा करनेवाले, दया करनेवाले) श्रीरामचंद्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण (कठोर, भीषण) भय को दूर करने वाले है । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि-शुची, नौमी जनक सुतावरं ॥२॥
अर्थ:- उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित (असंख्य, अनगिनत) कामदेवो से बढ़कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥
अर्थ:- हे मन ! दीनों के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित खरदूषणं ॥४॥
अर्थ:- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी है । जो धनुष-बाण लिये हुए है, जिन्होने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥
इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल गंजनं ॥५॥
अर्थ:- तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि जो शिव, शेषजी और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं । वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करे ॥५॥
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
अर्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेंगे । वह करुणा निधान (दया का खजाना) और सुजान (सर्वग्य, सब जाननेवाला) है, शीलवान है । तुम्हारे स्नेह को जानता है ॥६॥
एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली ।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥
अर्थ:- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई । तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥
जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥
अर्थ:- गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता । सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥
श्रीराम स्तुति (Ram Stuti)
श्रीरामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भयदारुणं। नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कन्जारुणं।।
कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरज सुन्दरं। पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरं।।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकंदनं। रघुनंद आनंदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं।।
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं। आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरधूषणं।।
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं। मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादी खल-दल-गंजनं।।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भांती गौरि असीस सुनी सिय सहित हियं हरषीं अली। तुलसी भवानिही पूजि पुनी पुनी मुदित मन मंदिर चली।।
।।सोरठा।।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।
।।सियावर रामचंद्र की जय।।