क्रिया योग रहस्य (Kriya Yoga Rahsya) - Summary
क्रिया योग रहस्य (Kriya Yoga Rahsya) पुस्तक हिंदी में माहेश्वरी प्रसाद दुबे द्वारा रचित है। अगर आप भी यह किताब पढ़ना या डाउनलोड करना चाहते हैं तो निचे दिए गए लिंक से प्राप्त क्र सकते हैं। “क्रिया योग रहस्य” पुस्तक एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ है जो हमें आत्मा के गहरे रहस्यों की ओर ले जाता है। इस पुस्तक में क्रिया योग की महत्वपूर्ण तकनीकों, ध्यान के गहरे सिद्धांतों और आंतरिक ज्ञान के अद्वितीय रहस्यों का विवरण है।
क्रिया योग का उद्देश्य हमारे आत्मा के गुफाओं में छिपे आद्यात्मिक शक्तियों को जागरूक करना है। यह प्राणायाम (श्वास की निगरानी), ध्यान, और मानसिक शुद्धि की तकनीकों का संयोजन करता है ताकि हम आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर हो सकें। क्रिया योग रहस्य पुस्तक में आत्मा की अद्वितीयता, प्राण शक्ति के महत्व, और योगी गुरु के द्वारा दिए गए मार्गदर्शन का विवरण है। यह उपनिषदों, पुराणों, और महापुरुषों के उपदेशों का संकलन है, जो आत्मा के अद्वितीयता को समझाने और उसे प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
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इस सृष्टि में मानव सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए उसका कार्य भी अन्य जीवों से श्रेष्ठ होना चाहिए। मनुष्येतर जीव तो केवल आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ही रहते हैं क्योकि ईश्वर ने इन भोग योनियों में उनको सीमित बुद्धि दिया है। साथ ही साथ उनको जन्म के साथ ही सब ज्ञान ( जितना उन्हें प्रयोजन है ) ईश्वर दे देता है। गाय का बछड़ा पैदा होने के कुछ ही देर बाद दौड़ने लगता है। यदि उसे पानी में फेंक दिया जाय तो तर भी सकता है। मनुष्य के साथ ऐसा कुछ नहीं है। उसे सब कुछ धीरे-धीरे सीखना पड़ता है; परन्तु ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि का अपार भण्डार दिया है। मनुष्य उस बुद्धि का थोड़ा ही भाग उपयोग में ला पाता है। बड़े-बड़े बैज्ञानिक भी उसका १० से १५ प्रतिशत ही काम में लापाते हैं। मनुष्य अन्य जीवों से श्रेष्ठ इसलिए है कि वह अपनी साधना से सृष्टि के रहस्य को जान सकता है एवं मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। इस बुद्धि भण्डार के कारण ही मनुष्य यदि कोई गलत कार्य करता है तो उसे पाप भी लगता है।
अन्य जीव पापदृष्य से मुक्त होते हैं। यदि मानव धर्म पालन (साधना) छोड़ दिया तो वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं रहता । मनुष्य को उसके इसी कर्त्तव्य को याद दिलाने के लिए अनेक महात्मा समय-समय पर पैदा होते हैं। इन्हीं महात्माओं में उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में योगावतार श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय का आविभाव हुआ। उन्होंने हिमालय में अपने गुरु “श्री बाबा जी महाराज जो हजारों वर्ष से तपस्यारत हैं, ( आज भी जीवित हैं ) उनसे क्रिया योग की दीक्षा लोग इस सावित्री दीक्षा को गृहस्थों में वितरण करने का आदेश भी उनसे ले लिये। इसके फलस्वरूप जप, कीर्तन, यज्ञ और मूर्ति उपासना तक से ही संतुष्ट रहने वाले गृहस्थ, जो आत्मोपासना की उत्तम विधि क्रिया योग से सदियों से वंचित रहे, उनके जीवन में एक नया सूर्योदय हुआ। उनके लिए भी मोक का पथ प्रशस्त हुआ। श्री लाहिड़ी महाशय के पहले शायद ही कोई विरले महात्मा रहे होंगे, जो ब्रह्मचारियों तथा सन्यासियों के अलावा, किसी गृहस्थ के सम्मुख ब्रह्म विद्या के गुप्त रहस्य को प्रकट किये होंगे। यह आत्मोपासन यथार्थ धर्म है। आइए अब धर्म पर कुछ विचार किया जाय ।
धर्म- हमारे शास्त्रों के अनुसार मनुष्य इस सृष्टि का आदि जीव है। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ भी है। अब विचार करना चाहिए कि अन्य जीवों से मनुष्य में क्या विशेषता है ? इस सन्दर्भ में एक श्लोक यहाँ दिया जा रहा है-
आहार निद्रा भय मैथुनं च समानवेता पशुभिः नराणां ।
धर्मोहि एको अधिकोविशेषो धर्म विहीन नर पशु समान ॥
अर्थात् – आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन सभी जीवों में समान रूप से रहता है। धर्म ही एक मात्र मनुष्य की विशेषता है। यदि मनुष्य इस धर्म का पालन नहीं किया तो वह भी एक पशु ही कहा जायेगा ।
यह धर्म वास्तव में क्या है ? श्री लाहिड़ी महाशय कहते हैं कि दया ही धर्म है। सबसे पहले हमें अपने ऊपर ही दया करनी चाहिए। हम अपने ऊपर कैसे दया करें ? हमारी दवांस २४ घंटे में २१६०० बार चलती है। इस श्वांस को यदि प्राणायाम के द्वारा कम किया जाय अर्थात् “लम्बी श्वांस लेने से श्वांस की संख्या कुछ कम होगी तो प्राण की चंचलता भी कम होगी” जैसाकि लिखा है-
“चले वाते चले चित्तो निश्चले निश्चलो भवेत् ।”
अर्थात् वायु के चलने से प्राण चंचल होता है और निश्चल होने से प्राण भी स्थिर होता है। इसीलिए अपने शास्त्रों में प्राणायाम का इतना अधिक महत्व दिया गया है, “यह प्राणायाम ही प्राण की सेवा है। इससे प्राण स्थिरत्व को प्राप्त होता है”। यह प्राणायाम ही महान् धर्म है। यथा – ” प्राणायाम महाधमों वेदानांमप्यगोचरो”। यह प्राणायाम ही परम धर्म है क्योंकि प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है और उसकी उपासना मोक्षदायी भी है। यदि आप ध्यान दें तो पायेंगे कि हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में प्राणायाम की व्यवस्था है। सत्यनारायण की कथा सुनाने के पहले पण्डित जी कहते हैं “५ बार श्वांस लेकर छोड़ दीजिए”। चूँकि वे भी प्राणायाम नहीं करते इसीलिए केवल श्वांस ही लेने को कहते हैं। शास्त्रों में प्राण की उपासना श्रेष्ठ बतलाते हुए लिखा है-
प्राणोहि भगवानीशं प्राणो विष्णु जनार्दनः ।
प्राणोहि धार्यते लोको, सर्व प्राणमयं जगत् ॥